शकील अख्तर
भारत में मेडिकल की सीटें कम है और उम्मीदवार ज्यादा तो बाहर तो जाना ही है। इसी बात पर कम सीटें और ज्यादा उम्मीदवार होने पर 2009 में राहुल गांधी ने उत्तराखंड में कहा था कि इसका इलाज आसान है। सीटें बढ़ा देना। वहां स्टूडेंट्स के साथ बात करते हुए कोई आरक्षण का सवाल लाया था और जैसा आज कहा जा रहा है कहा था कि आरक्षण की वजह से एडमिशन नहीं मिल रहा।
हमारे यहां समस्या है फालोअप की। अच्छी बातें कहने में हम सबसे आगे हैं। मगर उन्हें अमल में लाने में सबसे पीछे। कहो और भूल जाओ। या नेता कहे तो उसे याद मत रखने दो। भूलवा दो। कोई और नई व बड़ी बात कहलवा दो। यहां हम प्रधानमंत्री मोदी का या प्रतीकात्मक राजनीति करने वाली भाजपा का उदाहरण नहीं देंगे। कांग्रेस का या इन दिनों विपक्ष में सबसे मजबूती से जनता की बात उठाने वाले राहुल गांधी का देंगे।
बात विद्यार्थियों की हो रही है। सब तरफ यूक्रेन में फंसे भारतीय बच्चों की चर्चा है। हर कोई अपनी समझ और भक्ति भाव के अनुसार बातें कह रहा है। स्टूडेंट्स पर भी आरोप लगाए जा रहे हैं कि क्यों विदेश गए थे पढ़ने? यह अलग बात है कि विदेश में पढ़ने वाले बच्चों ने ही दुनिया में भारत का नाम किया है। मगर खैर वह अलग बात है। आरोप लगाने वालों की समझ में नहीं आएगी। क्योंकि वे तो मानते हैं कि भारत का नाम ही 2014 के बाद हुआ था। उससे पहले तो यहां पैदा होना ही शर्म की बात थी। ऐसा खुद प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था इसलिए इस पर शक करने का कोई कारण भी नहीं है। भक्तों के लिए तो यही अंतिम बात है।
तो जाहिर सी बात है कि भारत में मेडिकल की सीटें कम है और उम्मीदवार ज्यादा तो बाहर तो जाना ही है। इसी बात पर कम सीटें और ज्यादा उम्मीदवार होने पर 2009 में राहुल गांधी ने उत्तराखंड में कहा था कि इसका इलाज आसान है। सीटें बढ़ा देना। वहां स्टूडेंट्स के साथ बात करते हुए कोई आरक्षण का सवाल लाया था और जैसा आज कहा जा रहा है कहा था कि आरक्षण की वजह से एडमिशन नहीं मिल रहा। इसका जवाब देते हुए राहुल ने कहा था कि अगर सीटें ज्यादा होंगी तो सबको एडमिशन मिलेगा। सामान्य बात है, मगर बहुत कारामद। लेकिन क्या हुआ? राहुल ने कहा खूब तालियां बजीं। हम भी थे। रिपोर्ट किया। खबर बनी। और बात खत्म। हालांकि बाद में इस पर लिखा। लिखते रहे। मगर कौन सुनता है। जैसे आज भाजपा सरकार नहीं सुन रही वैसे यूपीए सरकार भी नहीं सुनती थी।
दस साल में सोनिया ने क्या कहा? राहुल ने क्या कहा? कांग्रेसियों के लिए इसका कोई मतलब नहीं था। हर मंत्री अपना अजेंडा चलाए हुए था। जिसमें प्रमुख था अपनी कुर्सी सुरक्षित रखना और इसके लिए मीडिया को सेट रखना। जैसे आज मीडिया मोदी या भाजपा के लिए काम कर रही है। वैसे उस टाइम में अलग-अलग मंत्रियों और कांग्रेस के संगठन के नेताओं के लिए काम करती थी। यूपीए सरकार के लिए नहीं। उसकी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की, यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी की, राहुल की खूब आलोचना और कुछ मंत्रियों एवं संगठन के नेताओं का बचाव।
वह तो सोनिया गांधी ने कुछ पढ़े-लिखे और प्रतिबद्ध लोगों की एक कौंसिल (एनएसी) बनाकर कुछ काम किए। मनरेगा जैसी स्कीमें लाईं, जिसने कहने को तो ग्रामीणों की मदद की मगर वास्तव में देश की पूरी अर्थव्यवस्था को नई गति दे दी थी। इसका भी कांग्रेस के दिग्गजों ने बड़ा विरोध किया था। मगर सोनिया गांधी के निर्णय को नहीं बदलवा पाए। इस एक कानून ने देश की अर्थव्यवस्था को कैसे पंख दिए इसे एक उदाहरण से बताते हैं। देश के एक बड़े उद्योगपति ने अभी कुछ समय पहले कुछ मित्रों, पत्रकारों को दी एक सिलेक्टेड पार्टी में कहा कि धंधा चौपट हो गया है। उन्होंने बताया कि उनका ज्यादातर माल गांवों में जाता था। मनरेगा ने किसानों, गांव वालों के हाथ में पैसा पहुंचाया था। वे खर्च करते थे। उपभोक्ता सामग्री खरीदते थे। मगर अब मनरेगा में काम नहीं दिया जा रहा। गांव में पैसा नहीं है। लोगों की खरीद क्षमता खत्म हो गई है। हम लोगों ने प्रोडक्शन कम कर दिया। यहां लेबर की छंटनी करना पड़ी। पूरी साइकल उलटी घूम गई।
यहां यह बता दें कि यह उद्योगपति परिवार भाजपा के पुराने समर्थकों में रहा है। मोदी के भी। तो जब उनसे कहा कि यह बात आप ऊपर क्यों नहीं बताते तो उनका जवाब था कि क्या अब पहले की तरह कोई सुनता है? खैर यह एक अलग मुद्दा है। मगर फिलहाल बताना यह है कि पार्टी के कुछ बड़े नेताओं के विरोध के बावजूद सोनिया का उठाया यह कदम कितना कामयाब था।
सोनिया यह काम कर गईं। किसानों की कर्ज माफी, फूड सिक्योरिटी जैसे और काम कर गईं। मगर बहुत मेहनत करके। एक बार उन्होंने कहा कि हमारे नेता क्या सोचते हैं कि मैं कह कर भूल जाऊंगी? मुझे सब याद रहता है। मगर इन लोगों से काम करवाना बहुत मुश्किल है। फिर भी सोनिया ने कुछ कर लिया। लेकिन राहुल की बात कांग्रेस के मंत्रियों ने बिल्कुल नहीं सुनी। राहुल के पास उन दिनों चार्ज ही एनएसयूआई, यूथ कांग्रेस का था। पार्टी के महासचिव थे। शिक्षा पर, नए स्कूल, कालेज, उच्च शिक्षा संस्थान खोलने पर उनका बहुत जोर था। राजीव गांधी ने देशभर में नवोदय विद्यालय खोले थे। नेहरू ने भारत में उच्च मेडिकल शिक्षा के लिए एम्स और इंजीनियरिंग के लिए आईआईटी खोले थे। यूजीसी बनाई थी। राहुल जानते थे कि शिक्षा ही भारत को आगे बढ़ाएगी। मगर उनकी अपनी सरकार ने इसे प्राथमिकता पर नहीं रखा। राहुल ने जब सीटें बढ़ाने की बात कही। मेडिकल में, इंजीनियरिंग में, साइंस के रिसर्च में, मैंनेजमेंट में, विश्वविद्यालयों में पीएचडी में सब जगह तो कांग्रेस के एक बड़े नेता ने कहा कि एक तो मनरेगा से सस्ते मजदूर मिलना बंद हो गए दूसरे अगर इतनी सीटें बढ़ा देगें तो फिर सबके लड़का, बच्चा डाक्टर और इंजीनियर नहीं बन जाएंगे। यह सामंती सोच कांग्रेस में भी थी। सीटें कम रखो ताकि बड़े लोगों के बच्चे ही उच्च शिक्षा पा सकें। राहुल की सीटें बढ़ाने के प्रस्ताव को पार्टी के नेताओं ने ही वीटो कर दिया था। महिला आरक्षण के समय सोनिया ने अपने इन प्रतिगामी कांग्रेस के साथियों को चेतावनी देते हुए कहा था कि मुझे मालूम है कि कौन-कौन लोग महिला आरक्षण का विरोध कर रहे हैं। प्रियंका के यूपी में 40 प्रतिशत टिकट महिलाओं को देने के फैसले का भी पार्टी में कम मजाक नहीं उड़ाया गया। मगर प्रियंका डटी रहीं।
कांग्रेस जब तक यह नहीं समझेगी कि वह किन लोगों की पार्टी है, तब तक उसके फैसलों पर सामंती, और अवसरवादी नेताओं का प्रभाव बना रहेगा। नेहरू के समय भी था। संविधान सभा में भी था जहां कांग्रेस के ही नेता ने सबको, खास तौर पर अशिक्षित लोगों को मताधिकार देने का विरोध किया था। नेहरू, इन्दिरा के समय तो प्रतिक्रियावदी लोगों की एक तगड़ी लाबी थी। मगर दोनों ने इसकी परवाह किए बिना प्रगतिशील नीतियां लागू कीं। बैंकों का राष्ट्रीयकरण, राजाओं का प्रीविपर्स, प्रिवलेज खत्म करके इन्दिरा गांधी ने दक्षिणपंथियों की कमर तोड़ दी थी। कांग्रेस मूलत: भारत के आम आदमी की उम्मीदों की पार्टी है। प्रगति, भाईचारे, समानता, भविष्य की पार्टी।
इन्हीं चीजों का फालोअप राहुल को बढ़ाना होगा। एक सिस्टम विकसित करना होगा जहां प्राथमिकताएं तय हों और उन पर काम हो। मेडिकल की सीटें बढ़ाना कोई बड़ा काम नहीं है। एकदम आंतरिक मामला है। इन्दिरा ने जब ठान लिया तो करीब पचास साल पहले 1974 में दुनिया के भारी विरोध के बावजूद परमाणु विस्फोट कर लिया। दुनिया में एक नया परमाणु देश बना दिया। यहां दृढ़ निश्चय ही चलता है। पूरी पार्टी पीछे-पीछे चलने लगती है। दस साल यूपीए के समय पार्टी के मैनेजर, अवसरवादी, बातें बनाने वाले नेता आगे चले, पार्टी पीछे। राहुल, प्रियंका को इसे बदलकर वापस इन्दिरा का वह सिस्टम लाना होगा जहां नेता और पार्टी आगे चलते हैं और अवसरवादी, प्रतिक्रियावादी या तो बाहर या पीछे घिसटते हुए।